शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

प्रबंधन के कुछ गैर-पारिभाषिक एवं गैर प्रचलित सूत्र !!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

प्रबंधन के कुछ गैर-पारिभाषिक एवं गैर प्रचलित सूत्र !!

प्रिय भाई ,
              तुम्हें मेरा अत्यधिक प्रेम, 
               आज तुमसे कुछ बातें शेयर करने को दिल चाह रहा है,किन्तु आमने-सामने देर तक कुछ कहा जाना और सामने वाले का उसका सूना जाना अब बड़ा दुरूह हो चुका है,इसलिए यह पत्र तुम्हें लिख रहा हूँ कि तुम बड़े इत्मीनान से समय लेकर पढ़ सको,और जब अवसर मिले इसे पढ़कर प्रबंधन के कुछ गुर सीखो और मज़ा यह है कि प्रबंधन के विषय में इस तरह की बातें प्रबंधन की किसी पुस्तक में नहीं बतायी जाती ,मगर मुझे आशा है कि आने वाले दिनों में मेरे इस पत्र को प्रबंधन की पुस्तकों में एक पाठ की तरह शामिल कर लिया जाएगा .
                भाई मेरे,(1) हम जैसे व्यापारी लोग अपने व्यापार के लिए जिस तरह के लोगों से काम लेते हैं,वो ज्यादातर बेहद अकुशल,अशिक्षित और बेहद गंदगी वाले माहौल से आने वाले विवश और गरीब लोग होते हैं,जिन्हें यह पता नहीं होता कि कर्मठता किस चिड़िया का नाम है और किस तरह का आचरण करके आप मालिक की नज़र में एक "अच्छे मजदूर"बन सकते हो,हाँ यह जरूर है कि अक्सर वे ईमानदार अवश्य होते हैं,जिसके कारण वे अपने मालिक के विश्वासपात्र बन जाते हैं (बेशक यह विश्वास कभी भी इस स्तर पर नहीं पहुँच पाता कि मालिक अपना गल्ला उनके हवाले करके पेशाब करने भी जाए,और मैं इसका अपवादस्वरूप हूँ.
                इसलिए भाई मेरे इन्हें काम सिखाना और इनसे  काम लेना कुछ समय तक बहुत कठिन होता है.इनमें कुछ लोग बेहद समझदार भी होते हैं बाकी ज्यादातर तो गैर-समझदार ही,मगर इसका मतलब यह नहीं कि वो मूर्ख ही हों,जैसा कि मालिक लोग समझते हैं ! किन्तु धरती का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जहां कि गालियों,लताड़ों,दुत्कारों द्वारा किसी को कोई काम समझाया या सिखाया जा सकता होओ,जहां भी ऐसा होता है,वे मानवीयता की दृष्टि से बेहद शर्मनाक जगहें होती हैं,जिनका मैं कतई कायल नहीं.आपके पास किसी भी गैर-कुशल मजदूर-स्टाफ का रहना आपके एक टीचर होने की डिमांड करता है,ये आप ही हैं,जिसने एक गैर कुशल स्टाफ या मजदूर को दो वजहों से चुना है,
                  एक,या तो आप अपने काम के एवज में उसे यथोचित- उचित या कहूँ कि ज्यादा मेहनताना दे पाने में सक्षम नहीं है,या फिर अपनी कमाई के लालच में उसका शोषण करना चाहते हैं,मगर दोनों ही हालातों में उस मजदूर का चुनाव सिर्फ-व्-सिर्फ आपका और आपका है और इसके लिए आप उस गैर-कुशल अकुशल,अशिक्षित व्यक्ति को ज़रा-सा भी दोष नहीं दे सकते,जिसे आपने अपनी मर्जी,विवशता या लालच के कारण चुना है,इसलिए यह आपका प्रथम एवं अनिवार्य कर्तव्य है कि अब आप उसकी समुचित टीचिंग करें,ना कि रैंगिंग .
                दूसरा,समूची धरती पर मजदूरों या स्टाफों के रूप में छोटे-छोटे बच्चों का उपयोग होता है,जो मेहनत की दृष्टि से उचित,बल्कि अत्यधिक(उनकी क्षमता से काफी अधिक) और मेहनताने की दृष्टि से कमतर तथा प्रताड़ना की दृष्टि से लाज़वाब जान पड़ते हैं,जिन्हें पशुओं से भी बदतर खटाकर बात या लात से प्रताड़ित किया जाता है!अब आप ज़रा यह सोच कर तो देखो कि जिस तरह आप उस बच्चे,जो मजबूरी के मारे अपना घर छोड़कर खेलने-खाने की उम्र में आपके पास काम करने आता है तो उसकी आपसे यह अपेक्षा तो कतई नहीं रहती होगी कि आप उससे पशुओं जैसा व्यवहार करोगे,बल्कि वह जो बच्चा जो किन्हीं भी कारणों से आपके पास है,उसकी अपेक्षा और ईच्छा आपसे अपनी मेहनत के बदले प्यार और सम्मान पाने की होती होगी,जैसा कि आप खुद अपने लिए चाहते हो अपने खुद के काम के एवज में !तो आप यह तो सोचो कि जो आप अपने लिए चाहते हो उससे किसी दूसरे को क्यों वंचित करना चाहते हो,या कर ही डालते हो,महज इसलिए कि आप शिक्षित हो हुनरमंद हो ??तो आप अपना हुनर उसे सिखाओ ना,अपने हुनर या ज्ञान को खुद तक सिमित रखना दुनिया का सबसे बड़ा अहंकार और स्वार्थ है !(इस नाते मैं ये भी मानता हूँ कि व्यापार में जिसे मोनोपोली कहते हैं,वह भी इसी श्रेणी का अहंकार,स्वार्थ और मानवता को शर्मसार करने वाला है,जिसे यह "सभ्य" मनुष्य अपने साथ पता नहीं कैसे चिपटाए हुए है और करते हुए भी वह खुद को सभ्य कहता है !
                बगैर उचित टीचिंग के दुनिया अच्छी नहीं बनायी जा सकती और इसके लिए यह आवश्यक है कि आप किसी भी किस्म के दुराग्रह और कुसंस्कार से दूर हों !अगर आप किसी भी तरह से अपने लिए एक अच्छा समाज चाहते हैं तो आपको हर हालत में खुद को बेहतर,और बेहतर,और बेहतर बनाना ही होगा !आप खुद विगलित रहते हुए कुछ भी अच्छा चाहने का हक़ तक नहीं रखते !
               तीसरा,धरती पर मालिक की जात एकमात्र ऐसी जात है,जो खुद को सदैव बिलकुल सही समझती है,अपने ज्ञान को सही समझती है,मगर अपने ज्ञान को आप सही समझो,यहाँ तक तो ठीक है,मगर दूसरे के ज्ञान को कमतर या तुच्छ समझना यह कहाँ की शरीफी है ?और इसी कारण मैंने देखा है कि कई बार स्टाफ के उचित परामर्श को मालिक महज इसीलिए नहीं मानता कि वह परामर्श एक स्टाफ का है !कई बार स्टाफ का प्रैक्टिकल अप्रोच मालिक की अपेक्षा ज्यादा समीचीन होता है,मगर मालिक उसकी बात ठीक से सुनता तक नहीं अपने मालिक होने के अहंकार या ठसके के कारण....मगर बात यहीं तक जा रूकती तब भी गनीमत थी,मगर होता तो यहाँ तक है कि अपनी उस थेथरई के कारण पनपी समस्याओं को भी नहीं समझते,या समझने का प्रयास तक नहीं करते,दूसरे शब्दों में अपनी गलतियों को ना मानकर भविष्य की बेहतरी के लिए कोई सबक नहीं सीखते !और इस तरह मालिक और-नौकर का रिश्ता बेहद कटुतम होता चला जाता है और मैं चाहता हूँ मेरे भाई,तुम ऐसे कतई ना बनो !!
                 अपने द्वारा किया गया बेहतर से बेहतर काम भी अपने द्वारा की गयी स्वभाववश या अनजानेवश गलतियों के कारण नकारा हो जाता है !मालिक कम-से-कम यह तो सोचे कि हो सकता है कि बेशक खुद वही सही हो,मगर अपने सही होने के कारण उसे किसी को प्रताड़ित करने का हक़ तो नहीं मिल जाता ना !उसे अपने सही होने के तर्क को अपने स्टाफ की भाषा में ही अपने स्टाफ को समझाना होगा,ना फटकारपूर्ण शब्दों में और गलत लहजे का इस्तेमाल करते हुए वह स्टाफ को कुछ कहे !मगर जहां मालिक ही गलत हो वहां स्टाफ क्या करे,किन शब्दों में मालिक को समझाए !!उसके पास तो मालिक वाली भाषा या मालिक वाला संस्कार तो नहीं ना..!!(यहाँ यह जोड़ देना मैं उचित समझता हूँ कि तमाम संस्कार और शिक्षितता के बावजूद मालिक व्यवहार कु-संस्कार वाला करे तो उसे कौन सी कैटेगरी में रखा जाए ??) 
                 इसलिए मेरे भाई जिसे तुम स्टाफ को सर चढ़ाना समझते हो वो मेरे लिए मेरी मानवता है,मेरा संस्कार है ,मेरा चरित्र है और वही सही भी है,ऐसा मेरा मानना है,चाहे इसे कोई माने या ना माने !इस पत्र को पढ़कर मैं आशा करता हूँ कि शायद तुम गैर-कुशल,अशिक्षित श्रमिकों से उचित व्यवहार करना सीखो !इसके लिए सदैव यह ध्यान रखना होगा कि वह तो जो है,सो है,मगर आप तो कुशल हो ना,आप तो शिक्षित हो ना,आप तो संस्कारवान हो ना,आप तो कुशल हो ना !!तब आप अपनी गैर-समझदारी क्यों प्रदर्शित करते रहते हो,आप मालिक हो ना,तो आप मालिक ही रहो ना व्यवहार के निचले तल तक जाकर अपनी तौहीन क्यूँ करवाते हो ?स्टाफ के साथ बगैर उसकी गलतियों के भी उसके साथ गलत व्यवहार करना,स्टाफ को किसी भी बात को भर्त्सनापूर्ण शब्दों में समझाना,यह मालिकियत नहीं नहीं मालिकियत का कुसंस्कार है,जिसे अगर मगर त्याग दे दुनिया के सभी मजदूरों का अपने मालिकों के साथ सुन्दरतम रिश्ता कायम हो सकता है,बाकी ऊपर वाला तो सबका मालिक है ही.....है ना भाई !!
                  पुनश्चः,ये बातें मैं तुम्हें इसलिए लिख सका क्यूंकि मैं समझता हूँ कि तुममे पर्याप्त समझदारी है इन बातों को समझते हुए खुद को तदनुरूप ढाल लेने की,क्योंकि अपने काम में पारंगत होते हुए भी दुनियादारी में गैरव्यवहार-कुशलता बहुत बार आपको नीचा दिखाती हैं,और आप बेहतर होते हुए भी उंचाईयों को नहीं छू पाते ,क्योंकि काम में पारंगतता एक अलग बात है,और अपना आचरण एक दूसरी बात !!आप काम में पारंगत होते हुए भी आचरण में पर्याप्त मधुरता ना होने के कारण उचित मुकाम हासिल करने में अक्षम हो सकते होओ मगर काम में अपारंगत होते हुए भी सुमधुर आचरण से उन्हीं उंचाईयों को प्राप्त कर सकते हो !
                 दुनिया का सबसे बड़ा अस्त्र है मीठी बोली या मधुर आचरण !! 
             

धरती पर बढ़ेंगे अभी और बलात्कार !!


धरती पर बढ़ेंगे अभी और बलात्कार !!

               शीर्षक पढ़कर चौंकिए नहीं क्योंकि तरह-तरह के अध्ययनों के अनुसार जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे दो बातें स्पष्टया साबित होती हैं,एक,धरती पर पुरुष-स्त्री का लिंगानुपात असामान्य रूप से असंतुलित होता जा रहा है,दूसरा,संचार के तमाम द्रुतगामी साधनों की बेतरह उपलब्धता के कारण आदमी जल्द ही व्यस्क होता जा रहा है,आदमी जहां पूर्व में इक्कीस-बाईस में,फिर सत्रह-अट्ठारह में,फिर पंद्रह-सोलह में और अब तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में ही व्यस्क हो रहा है,जबकि लड़कियों में यह उम्र बारह-तेरह की निम्नतम स्तर को छु गयी है !!
                इसका एक मात्र कारण आधुनिक युग के संचार के साधन हैं,जहां अब कुछ भी गोपन नहीं है,पहले जहां किसी प्रकार की कामुक सामग्री बहुत कठिनता से प्राप्त हुआ करती थी,वो भी छपी हुए रूप में,जिसे छिपाना अत्यंत असाध्य हुआ करता था,जिससे ऐसी सामग्री को घर में लाने से कोई किशोर डरा करता था,मगर अब किशोरों की तो क्या कहिये,बच्चे-बच्चे के हाथ में मोबाईल के रूप में चौबीसों घंटे उपलब्ध रहने वाला ऐसा साधन उपलब्ध है,जिसके साथ कोई भी किस चीज़ का आदान-प्रदान कर रहा है,कोई नहीं जान सकता,क्योंकि देख-पढ़ लेने के बाद डीलीट करने के ऑप्शन के कारण आप कुछ भी चिन्हित नहीं कर सकते हो,दूसरी और किशोरों के हाथ में इंटरनेट नामक एक ऐसा हथियार आ चुका है,जिसे वो अपनी क्लास छोड़-छोड़ कर चाहे कितनी ही बार इस्तेमाल करने जा सकते हैं,जाते हैं.मगर अब तो यह मोबाईल में भी चौबीस घंटे उपलब्ध है!!आपने अपने बच्चों के हाथों में ऐसी चीज़ें उपलब्ध करवा दी हैं,जिसका उपयोग अब वो अस्सी से नब्बे प्रतिशत तक अपना यौवन बढाने के लिए ही करते हैं,आप भी अब खुश हो जाईये कि अब आप अपने ही बच्चों का कुछ भी नहीं "उखाड़"सकते!!ऐसे शब्दों का उपयोग मैं इसी कारण कर रहा हूँ,क्यूंकि मैं देख पा रहा हूँ,कि आगे क्या तस्वीर उभर रही है,जिसे बदल पाना हमारे बस के बाहर है दोस्तों !!
                धरती पर पुरुष-स्त्री के असंतुलित होते जाने के बरअक्श आप इस तस्वीर को सामने रखिये तो आपको इसकी भयावहता का अंदाजा लगेगा.एक तरफ कामुक होते किशोर तो दूसरी तरफ घटती स्त्री की आबादी,इन दोनों को एक साथ रखकर देखिये तो बात साफ़ हो जाती है.धरती पर पहले ही पुरुष द्वारा स्त्री पर जबरन किये जाने बलात्कारों की सीमा भयावहतम सीमा को पार कर चुकी है,जो अब रोजाना लाखों की संख्या में है,ऐसे में धरती पर आने वाले दिनों में स्त्री की अनुपलब्धता किस स्थिति को जन्म देने वाली है,इसकी कल्पना भी नहीं जा सकती !!बच्चे जब जल्द युवा होंगे तो उन्हें जल्द ही स्त्री भी चाहिए होगी,और क़ानून या समाज की उम्र की बंदिशें उन्हें यह करने से रोकेंगी,तब ऐसे में क्या होगा??
                  दोस्तों प्रकृति में जो भी कुछ है,वो एक-दुसरे के जीवन-यापन की ही एक भरपूर श्रृंखला है.इस श्रृंखला की अनेकानेक इकाईयों को आदमी अपनी कारस्तानियों के कारण मेट चुका है,मगर अब अपनी ही जाति की व्याप्त बुराईयों की वजह से स्त्री को माँ के पेट में ही नष्ट कर देता है,यह उसकी इस "थेथरई"का ही परिचायक है,कि हम अपने भीतर की बुराईयों को नहीं मिटाएंगे,जिसके कारण हम स्त्री को अजन्मा ही मार डालते हैं,बल्कि स्त्री को ही मार डालेंगे!!सच भी है,ना रहेगा बांस,ना बजेगी बांसूरी...!!
         मगर ओ पागल धरतीवासियों मगर इसी बांसूरी को बजाने के कारण ही तुम्हें सुख भी मिल रहा है,साथ ही धरती भी चल रही है,और तुर्रा यह कि यह सुख तुम्हें शायद चौबीसों घंटे भी मिले तो तुम अघा ना पाओ,तब तो ओ पागल लोगों इस बात को तुम समझो कि इस सुख को पाने के लिए,जिसके लिए ना जाने तुम कितने ही तरह के धत्त्करम करते चलते हो,ना जाने कितने झूठ बोलते हो,धूर्ततायें करते हो,जिस सुख की खातिर तुम्हारे मनीषी,साधू-पादरी और ना जाने कौन-कौन से महापुरुष अपना सम्मान विगलित कर गए!!उसके अनिवार्य माध्यम को मिटा देना तुम्हारी कौन सी समझदारी है,यह तो बताओ !!??
                 प्रकृति में हर-एक चीज़ के होने का कोई-ना-कोई कारण है,उसकी उपादेयता है तथा उसके ना होने से व्यापक हानि भी है,स्त्री के सम्मान-वम्माम को तो मारो गोली,वह तो पता नहीं आदमी कब सीख पायेगा,किन्तु एक जैविक तत्व होने के नाते भर से भी स्त्री की उपादेयता को आदमी अगर ईमानदारी-पूर्वक  समझ भर भी ले तो वह इस अपने लिए इस अनिवार्य जैविक के ना होने से होने वाले नुक्सान को समझ पाने में भी सक्षम नहीं है क्या यह सभ्य-सु-संस्कृत सु-शिक्षित आधुनिक इन्सान..??!!अगर हाँ,तो समस्या का निदान नहीं ही है,ऐसा ही समझिये...मगर मैं तो यह जोड़ना चाहूंगा कि ऐसे आदमी को गधा कहना गधे का भी अपमान होगा....आप क्या कहते हैं दोस्तों....??कुछ आप भी कहिये ना..??    

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हिन्दी की स्थापना तो बहुत पहले हो गई
थी मगर इसकी पहचान अधूरी अब
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हिन्दी हमारी मातृभाषा है। मगर
क्या हम सही मायने मेँ हिन्दी का उपयोग
करते हैँ? नहीँ ना?
इस मंच की स्थापना हिन्दी को एक नई
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हम इस मंच के लिए कुछ
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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

अंदाज ए मेरा: बुआ जी की विदाई

अंदाज ए मेरा: बुआ जी की विदाई: साहित्‍य वाचस्‍पति श्री पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी की द्वितीय कन्‍या श्रीमती सरस्‍वती देवी श्रीवास्‍तव का पिछले दिनों निधन हो गया। सरस्‍वत...